Friday, May 30, 2008

तड़प...






















जिसकी बस आहट भर से धरती अम्बर झूम रहा है...
उस बादल की पीड़ा समझो जो बिन बरसे ही घूम रहा है...


छा रही है कारी बदरी वो कोरा मन सा बहक रहा है...
प्यास बुझाने धरा की देखो कैसे अब वो तड़प रहा है...

महक रही है सारी वादी वो डगर-डगर क्यों भटक रहा है...
देकर खुशियों की आहट सबको वो ख़ुद में ही क्यों सिमट रहा है...

कल-कल करती झीलों करी आँचल उसके मिलन को तरस रहा है...
तरस रहा वो बादल ख़ुद भी स्वयं ही मिटने गरज रहा है...

थामे सतरंगी दामन देखो कैसे अब वो बरस रहा है...
देकर अमृत वर्षा सब को अपनी अगन में सुलग रहा है...

जानी पीड़ा सबने अपनी उसे न कोई समझ रहा है...
लूटा के जग सारा वो देखो कैसे खुशी से झूम रहा है...
जिसकी बस आहट भर से....

"राहुल शर्मा"