Monday, May 19, 2014

वो जो रौशन …

वो जो रौशन … 












वो जो रौशन हुए बैठे हैं रुख़्सार से तेरे
कसम तुझको है ऐ सूरज मुझे वो चाँद ना कहना
ना करना मुझे महताब उस चांदनी से तू
जला तुझको ओढ़ा जिसने शीतल का ये गहना

वो जो साहिल पे बैठे हैं लहरों की आस में
कसम मुझको ऐ सरिता तेरा वो दीदार ना करना
नहीं करना मुझे अब पार लहरों की इन मौजों से
तोड़े नदियों का जो आँगन सजाने खुद का इक सपना

वो सुरमय नजारों से जो संगीन हैं तेरे
कसम तुझको तेरे साज की मुझे वो राग ना कहना
ना कर मुझे संगीत की उस लय में अब मदहोश
सरगम बन रही जहाँ सर के गम का बसेरा ।।

                                                                                 "राहुल शर्मा"




आलाप

आलाप 












इन शीशों की राहों में फिसले कितने राही हैं 
कुछ जो अनजाने अपने हैं कितने टूटे सपने हैं 
उन अनजान धुरों के साये संग में साथी अपने हैं 
धीरे धीरे टूट रहे जो छोटे छोटे सपने हैं … 

जब थी भटकी राहें मेरी मैं कितना संभला सा था 
आज जब है मंजिल आगे क्यों इतना भटका सा हूँ 
पसरी यादों की फुलवारी खुद में क्यों सिमटा सा हूँ 
मिले हैं जब परवाज पैरों को बंधन में क्यों जकड़ा सा हूँ ...

जब सावन बरसा था दिल से तन कितना सुखा सा था 
अब पतझड़ आगे है जबकि क्यों इतना भीगा सा हूँ 
सारा मंजर संवर रहा फिर क्यों इतना बिखरा सा हूँ 
चमक रही पूनम की थाली क्यों मैं फिर फीका सा हूँ ... 

जब शाखों पे बैठे थे पंछी मन उन्मुक्त गगन में था 
अब अम्बर में उड़ते सारे क्यूँ मैं तब धरा पर हूँ 
साँसों की सरगम संग बहता जीवन की जड़ता में हूँ 
बिखरे माल के हर मोती क्यों टूटे धागे सा हूँ .... 


                                                                                              "  राहुल शर्मा "

Friday, May 24, 2013

आहट ...

वो आहट थी तेरी ...
वो आहट थी तेरी या ग़ज़ल वो कहीं थी 
जो तूफां सा था वो साँसें थी मेरी 
समंदर था वो या थे आँखों के झरने 
वो दिल में हमारी थी धड़कन अधूरी 

आरजू की जो मूरत थी हमने मिटायी 
उसे फिर बनाने क्यूँ फिर से तुम आये 
बाखुदगी में खोया था मन जो ये काफिर 
उसे फिर जगाने ए खुदा फिर क्यूँ आये 
रहमत ने तेरी उजाड़ा ये दामन 
फिर से वो बादल एहसानों के छाये 
यही गर है चाहत अब फिर से तुम्हारी 
रहूँगा तुम्हारी ही ग़ुरबत के साये ...

इबादत से झुकती जहाँ थी निगाहें 
वो मंदिर कहीं था या दरगाह थी मेरी 
बहारों का निकला जहाँ से वो कारवां 
वहाँ पे खड़ी थीं मजारें जुनूँ की ...

वो बस एक पल था जब था साथ तेरा 
ये बातें सदियों की जब यादें हैं तेरी 
ये किस्से हैं सारे ये बातें पुरानी 
अधूरे हैं वादे अधूरी वो कहानी 
वो चाहत ना मेरी, ना थी वो तुम्हारी 
ये किस्से हैं सारे ये बातें पुरानी
ये किस्से हैं सारे ...

"राहुल शर्मा "


तमन्ना

एक और तमन्ना



















इक और तमन्ना मचल उठी, एक और तराना संवर गया
इस बार मुहब्बत नाम नहीं, कुछ और फ़साना रूठ गया
फिर चाक पर चढ़ गया, जो संभल रहा था पागल मन
इक और लहर अब टूट रही, एक और किनारा छुट गया
इस जीत ने फिर से हरा दिया, इस राह ने फिर से दगा दिया
उन बीती बातों ने, फिर से छूटा दामन थमा दिया
केसर की डाली ने झटके, फिर से कितने, मासूम से कण
सोयी आँखों को आज , कुछ सपनों ने फिर से आज जगा दिया

आसां है ऐलान-ऐ-जंग ये मालुम है मुझको
फिर हार कर भी क्यूँ इतना सुकूँ पाता हूँ
संभल रहा हर पीने वाला, बचकर ए साकी
बिन जाम के ही तूने आज फिर से भटका दिया
खेल ये किस्मत का अब हिज्र बन बैठा
हमने भी इसे अब अपना नसीब बना लिया ....

"राहुल शर्मा"

चौदवां चाँद

चौदवां चाँद 















वो देखो कैसे जल रहा है चौदवां चाँद 
शायद कल पूनम की रात होगी 
चूमेगी जब चाँदनी पूरी धरा को 
फिर अधूरी रात होगी 
होगा अधूरापन फिर से चाँद में
धरती की अधूरी प्यास होगी 
आस होगी जब मिलन की तब अमावास रात होगी 

वो देखो मिट रही नदिया की धारा 
शायद सागर में अब तक प्यास होगी 
मिटेगी सरिता जब लहरों से मिलकर 
उस जहर में भी एक मिठास होगी 
जब मिलेगी मौज से सागर की मस्ती 
टूटेगी धारा पर उसे, सागर मिलन की आस होगी 

वो देखो मिल रही कैसे हैं खुशियाँ हर घडी अब 
शायद फिर ग़मों की बरसात होगी 
बन रहे कैसे ये नग्मे जिंदगी में 
न जाने अब ये किन धुरों के साथ होगी 
हर ग़ज़ल को रहती है तेरी ही आस क्यूँ 
आखिर कब ये साँसे उन साँसों के साथ होंगी 
जाग कर सोचा तो धड़कने कह उठी 
निकल सपनों से बहार छोड़ साकी जाम तू 
इस सुबह के बाद भी एक शाम होगी 
होगा संघर्ष जब जिंदगी में 
हकीकत यही अब तेरे साथ होगी ...
वो दखो कैसे ...


"राहुल शर्मा"

पुकार

पुकार
























पुकार लो हमें की वक्त अभी गुजरा नहीं 
प्यार का आँचल हाथों से अभी छुटा नहीं 
पल-पल बिखरते इस रिश्ते की कसम 
पुकार लो हमें की साथ अभी छुटा नहीं 

थाम कर साँसों को अपनी चाँद है तड़प रहा 
चांदनी बिखर रही इक तारा कहीं है खो रहा 
वक्त की मौज पर लुट रहा सारा जहां 
मात की शह पर जा रहा क्यूँ कारवां 
आलिंगन इस दिल का क्या धड़कन से कभी होगा नहीं 
पुकार लो हमें की ...

इससे पहले की शाम ये ढल ना जाये 
पुकार लो हमें की धड़कन कहीं रुक ना जाये 
रुक ना जाएँ ये वादियाँ चाँद कहीं फिर छिप ना जाये 
सावन की उस बूंद को अब ये चातक तरसे नहीं 
पुकार लो हमें की ....

बीते लम्हों की याद में तेरे सपनों के साथ में 
बहती जाएगी जिंदगी तू हो या ना हो साथ में 
अर्थ इस सत्य का यही है, यही सत्य इस अर्थ का 
रूकती नहीं हैं राहें मंजिल मिलने की आस में 
लो...छोड़ दिया अब आँचल तुम्हारा, थाम लो खुशियाँ नयी 
पुकार लो हमें की ....

"राहुल शर्मा "

कश्ति

कश्ति  - दो किनारे कितनी धाराएँ 















राहें बदल रही हैं, मंजिल का पता नहीं 
रास्ते चल रहे हैं, राही रुका नहीं 
दिखी मंजिल तो मंजर छुट गए 
सपने जो देखे हमने पल में बिखर गए 
बिसरी यादों के सहारे दिल कभी संभलता नहीं 
शाख पर मन की वो परिंदा अब ठहरता नहीं 

खोया है मैंने क्या, क्या पाया वो पंछी 
रोका क्यूँ मैंने उसको उड़ान थी जिसकी बहुत ऊँची 
ऊपर उठ ना सका उसे फिर रोक ना सका 
पल भर ठहरता हूँ फिर से सोचता हूँ 
शायद मिल जाये वो आहात फिर से कहीं 
राहें बदल रही हैं ....

जिन्दा हूँ जीने के लिए, जीवन का पता नहीं 
साथी जो मिला मिलकर भी मिला नहीं 
खुशियाँ जो पल भर में समेटी थी हमने 
हथेलियों से वो रेत फिसली है यहीं कही 
पाया जो निशाँ तेरे उन खुशियों के रेत पर 
तब जा कर हकीकत बयां हुई ...
रेत पे अक्सर पैरों के निशाँ होते हैं 
दिल से उनका कोई रिश्ता नहीं 
राहें बदल रही हैं ...

याद हो ना हो आपको वो कागज़ की कश्ती 
पल भर में मेज पर बैठे हुए जब लिख दी थी आपने हमारी हस्ति 
आज भी इस पार मैं उसके बैठ कर सोचता हूँ 
बार-बार क्यूँ ..? आखिर क्यूँ मैं तुझे खोजता हूँ 
जानता हूँ बीच में एक दीवार है बड़ी 
और नाव हमारी वक्त के मझधार में पड़ी 

चलो वक्त को कुछ और वक्त दे के देखते हैं 
अपनी तमन्नाओं को और गहराते देखते हैं 
देख लें हम जरा निर्णयों को भावनाओं से खेलते 
और देख ले जरा हम रोज मरते ये रिश्ते 
अधिकार के बंधन में अब तुझे रखना नहीं ...
प्यार जो ये प्यार था वो मेरा था नहीं ..
राहें बदल रहीं हैं पर मंजिल का पता नहीं ...!!


"राहुल शर्मा "