Monday, May 19, 2014

आलाप

आलाप 












इन शीशों की राहों में फिसले कितने राही हैं 
कुछ जो अनजाने अपने हैं कितने टूटे सपने हैं 
उन अनजान धुरों के साये संग में साथी अपने हैं 
धीरे धीरे टूट रहे जो छोटे छोटे सपने हैं … 

जब थी भटकी राहें मेरी मैं कितना संभला सा था 
आज जब है मंजिल आगे क्यों इतना भटका सा हूँ 
पसरी यादों की फुलवारी खुद में क्यों सिमटा सा हूँ 
मिले हैं जब परवाज पैरों को बंधन में क्यों जकड़ा सा हूँ ...

जब सावन बरसा था दिल से तन कितना सुखा सा था 
अब पतझड़ आगे है जबकि क्यों इतना भीगा सा हूँ 
सारा मंजर संवर रहा फिर क्यों इतना बिखरा सा हूँ 
चमक रही पूनम की थाली क्यों मैं फिर फीका सा हूँ ... 

जब शाखों पे बैठे थे पंछी मन उन्मुक्त गगन में था 
अब अम्बर में उड़ते सारे क्यूँ मैं तब धरा पर हूँ 
साँसों की सरगम संग बहता जीवन की जड़ता में हूँ 
बिखरे माल के हर मोती क्यों टूटे धागे सा हूँ .... 


                                                                                              "  राहुल शर्मा "

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