Friday, May 24, 2013

कश्ति

कश्ति  - दो किनारे कितनी धाराएँ 















राहें बदल रही हैं, मंजिल का पता नहीं 
रास्ते चल रहे हैं, राही रुका नहीं 
दिखी मंजिल तो मंजर छुट गए 
सपने जो देखे हमने पल में बिखर गए 
बिसरी यादों के सहारे दिल कभी संभलता नहीं 
शाख पर मन की वो परिंदा अब ठहरता नहीं 

खोया है मैंने क्या, क्या पाया वो पंछी 
रोका क्यूँ मैंने उसको उड़ान थी जिसकी बहुत ऊँची 
ऊपर उठ ना सका उसे फिर रोक ना सका 
पल भर ठहरता हूँ फिर से सोचता हूँ 
शायद मिल जाये वो आहात फिर से कहीं 
राहें बदल रही हैं ....

जिन्दा हूँ जीने के लिए, जीवन का पता नहीं 
साथी जो मिला मिलकर भी मिला नहीं 
खुशियाँ जो पल भर में समेटी थी हमने 
हथेलियों से वो रेत फिसली है यहीं कही 
पाया जो निशाँ तेरे उन खुशियों के रेत पर 
तब जा कर हकीकत बयां हुई ...
रेत पे अक्सर पैरों के निशाँ होते हैं 
दिल से उनका कोई रिश्ता नहीं 
राहें बदल रही हैं ...

याद हो ना हो आपको वो कागज़ की कश्ती 
पल भर में मेज पर बैठे हुए जब लिख दी थी आपने हमारी हस्ति 
आज भी इस पार मैं उसके बैठ कर सोचता हूँ 
बार-बार क्यूँ ..? आखिर क्यूँ मैं तुझे खोजता हूँ 
जानता हूँ बीच में एक दीवार है बड़ी 
और नाव हमारी वक्त के मझधार में पड़ी 

चलो वक्त को कुछ और वक्त दे के देखते हैं 
अपनी तमन्नाओं को और गहराते देखते हैं 
देख लें हम जरा निर्णयों को भावनाओं से खेलते 
और देख ले जरा हम रोज मरते ये रिश्ते 
अधिकार के बंधन में अब तुझे रखना नहीं ...
प्यार जो ये प्यार था वो मेरा था नहीं ..
राहें बदल रहीं हैं पर मंजिल का पता नहीं ...!!


"राहुल शर्मा "


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