Saturday, January 5, 2013

सोच...

सोच आतंरिक वेदना 
सोच -  सामाजिक वेदना

कुछ खामोश आवाजें सुनाई देती हैं 

मुझे अब हर रोज कई चीखें दिखाई देती हैं 
किसी का मकॉ  तो किसी का संसार उजड रहा है 
खुश हूँ पत्थरों की पूजा नहीं की मैंने 
माँ भारती का आँचल तक मैला दिखाई दे रहा है .....

कब तक अपना दामन बचाऊ मैं, 

बाबा कैसे तुमको समझाउं मैं,
बचपन में भैया जैसा सपना देते,
 मुझे मेरे पंखों को परवाज देते,
साँसों का उधार नहीं चाहिए था,
 काश उन्मुक्त गगन का किनारा देते,
कर सकते गर वो अक्छुन्न पहल,
आज तुम भी एक तमाशबीन ना होते।।

क्या फिर कोई नया सवेरा हो पायेगा, 

पुरुषार्थ कभी संस्कार समझ पायेगा ,
संस्कृति का आडम्बर कब तक यूँ चलता रहे,
कोई कृष्ण फिर किसी द्रोपदी को बचा पायेगा,
हर युग में दामिनी आयेगी,
कभी सीता कभी सावित्री तो कभी द्रोपदी चिल्लाएगी,
समाज का ये स्वयंवर यूँ ही चलता रहेगा,
कभी किसी माँ तो कभी किसी बहन का आँचल उजड़ता रहेगा ...

आज भी दामिनी पुकार रही है,

एक प्रश्न हमपे छोड़ जा रही है ,
इतनी मुश्किलें ना बढ़ा खुदा ,
जिंदगी अता करने वाली हर एक  कोख ,
आज बेटा पैदा करने से घबरा रही है।।


"राहुल शर्मा"



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